श्रीलरासविहारी गोस्वामीजी महाराज : एक जीवन परिचय

 श्रीलरासविहारी गोस्वामीजी महाराज : एक जीवन परिचय
Vrindavan

श्रीलरासविहारी गोस्वामीजी ब्रज वृन्दावन की विशेषत: श्रीमन्माध्वगौड़ेश्वर वैष्णव सम्प्रदाय की विशिष्ट विभूति थे। कलिपावनावतार श्रीचैतन्य महाप्रभु के द्वारा ब्रज-वृन्दावन में वास हेतु पे्रषित षड़ गोस्वामियों में अन्यतम श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामिपाद की प्रार्थना से स्वयं प्रगट भगवान श्रीराधारमणदेव जी के सेवायत गोस्वामीवंश में उनका जन्म भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् 1971 सोमवार को हुआ। वे श्रीराधारमण दास गोस्वामी जी महराज के पौत्र एवं श्रीपुरूषोत्तमलाल जी गोस्वामी के ज्येष्ठ पुत्र थे। 

        दिव्य गौरवर्ण, मझोला कद, भरा हुआ शरीर, हँसते हुए से सुदीर्घ चंचल नेत्र, आभिजात्य एवं ज्ञान के गौरव की आभा राशि ने मिलकर उनके व्यक्तित्व को अत्यन्त आकर्षक बना दिया था। संस्कृत में उन जैसा विद्वान् आस-पास खोजे नहीं मिलता था। उस समय उन्होंने गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, बनारस (वर्तमान सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय, वाराणसी) की व्याकरणाचार्य परीक्षा में वे प्रथम श्रेणी में प्रथम रहे और स्वर्ण पदक प्राप्त किया। श्रीराधारमण मन्दिर के गोस्वामी सार्वभौम षड्दर्शनाचार्य श्रीदामोदर गोस्वामी एवं रामानुजीय वैष्णव श्रीसीताराम शास्त्री के सान्निध्य में संस्कृत व्याकरणादि शास्त्रों का उन्होंने गहन अध्ययन किया तथा प्राय: समस्त शास्त्रों में प्रवीणता प्राप्त करके अनेक उपाधियाँ भी अर्जित की। तत्पश्चात् वृन्दावन के अनेक संस्कृत महाविद्यालयों में उन्होंने सुदीर्घकाल तक अध्यापन कार्य किया। साहित्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र, वैष्णवदर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद, संगीत, तंत्र-मंत्र अभिप्राय यह है कि कोई भी शास्त्र उनकी पहुँच से परे नहीं था।

पूज्य गोस्वामिपाद ने सिद्ध दशा प्राप्त शब्द ब्रह्म, नाद ब्रह्म एवं सकल-कला-निष्णात परम भागवत गौड़ीय वैष्णवाचार्य श्रीपादबनमाली लाल गोस्वामी जी महाराज से मंत्रदीक्षा ली एवं मंत्रशास्त्र का अध्ययन किया। श्रीगोस्वामीजी अनेक कलाओं में भी पारंगत थे। सांझी, फूल बंगला, समाज-गायन तथा पाक-कला आदि में वे परम प्रवीण थे। इन सभी कलाओं का संबंध उनके परमाराध्य श्रीराधारमण देवजी की सेवा से था और इन्हें सीखने का प्रमुख उद्देश्य केवल भवगत्-सेवा ही था। किन्तु सर्वाधिक प्रशंसनीय था उनका सरल और विनोदी स्वभाव। हर प्रकार के छात्रों और अन्य लोगों की सहायता करना उनका स्वभाव था।

श्रीचैतन्य महाप्रभु के अनुयायी षड् गोस्वामियों की परम्परा में षड्दर्शन एवं श्रीमद्भागवत के स्वरूप का विवेचन श्रीलरासविहारी गोस्वामिपाद आजीवन अपने लेखन एवं प्रवचन में करते रहे तथा इस धारा को निरंतर अक्षुण्ण रखने के लिए शिष्यों द्वारा भी ग्रन्थ निर्माण की प्रेरणा देते रहे। 

फाल्गुन कृष्ण पंचमी संवत् 2039 शुक्रवार को स्वयंभू श्रीराधारमणदेव जी की नित्यनिकुंजलीला में प्रवेश किया।

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