द्वादश तिलक विधि
ललाट में केशव (1), उदर सें नारायण (2), वक्ष:स्थल में माधव (3), कण्ठ में गोविन्द (4), दक्षिण कुक्षि में विष्णु (5), दक्षिण बाहु में मधुसूदन (6), दक्षिण कन्धर में त्रिविक्रम (7), वाम पार्श्व में वामन (8), वाम बाहु में श्रीधर (9), वाम कन्धर में हृषिकेश (10), पृष्ठ में पद्मनाभ (11) एवं कटि में दामोदर (12) का ध्यान करके न्यास करे। प्रक्षालन जल का न्यास निज मस्तक में “वासुदेवाय नमः” मन्त्रोंच्चारण पूर्वक करे। इस प्रकार ये द्वादश तिलक होते हैं।
तिलक महत्ता
पद्मपुराण :-
ऊर्ध्व पुंड्र तिलक धारण न करके यज्ञ, दान, तपः होम, वेदाध्ययन पितृ तर्पण आदि सभी अनुष्ठान विफल होते हैं ॥१७८॥
पद्मपुराण :-
ऊर्ध्व पुंड्र तिलक शून्य मानव शरीर दर्शनयोग्य नहीं है, वह श्मशान तुल्य है ॥१८२॥
श्री ब्रह्माण्डपुराणे :-
वीक्ष्यादर्श जले वापि यो निदध्यात् प्रयत्नतः ।
ऊर्ध्व पुंड्र महाभाग स याति परमां गतिम् ॥२०४॥
श्रीब्रह्माण्ड पुराण में उक्त है - हे महाभाग ! जो व्यक्ति दर्पण अथवा जल में निज प्रतिविम्ब को देखकर यत्नपूर्वक ऊर्ध्व पुंड्र का निर्माण करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।
जो नासिक के अग्र भाग से केश पर्यंत अति सुंदर एवं मध्य छिद्र संयुक्त ऊर्ध्व पुंड्र तिलक है वही श्रीहरि मन्दिर है।ऊर्ध्व पुंड्र तिलक के वाम भाग में ब्रह्मा दक्षिण भाग में सदाशिव एवं मध्य में श्रीहरि अधिष्ठित हैं।
ऊर्ध्व पुंड्र तिलक धारी मनुष्य जिस किसी भी स्थान पर मृत्यु को प्राप्त होता है वह विमान में आरोहण करके वैकुंठ को प्राप्त करता है एवं सदैव आनंदानुभव करता है। ऊर्ध्व पुंड्र तिलक धारी मनुष्य जिसके घर में भोजन करता है, भगवान उसके बीस पुरुषों का उद्धार नरकों से करते हैं।
ऊर्ध्व पुंड्र तिलक धारण करने वाला व्यक्ति चाहे किसी भी स्थिति में हो वह सदैव पवित्र रहता है।
तथाहि : ह भ वि
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