पंच ऋण
प्रथम ऋण देव ऋण देवताओं का हमारे ऊपर किया गया एक उपकार है। ये देवता वर्षा करते हैं, वायु चलाते हैं, अग्नि प्रकट करते हैं, परिणाम स्वरूप हम अन्न प्राप्त करते हैं, प्राणवायु प्राप्त करते हैं। जिससे हमारा भरण- पोषण होता है और हम जीवित रह पाते हैं। देव ऋण के मार्जन अर्थात् निवृति के लिए हमें देवताओं को हवन आदि कार्यों से प्रसन्न करना चाहिये। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार 33 कोटि देवी देवताओं का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। इस सभी देवताओं को प्रसन्नता प्राणी मात्र के लिए आवश्यक है।
द्वितीय ऋण ऋषि ऋण हैं। यज्ञ-हवनादि कार्यों द्वारा ऋण-मुनि वर्षा कराते हैं, सुख सम्पदा लाते हैं एवं शास्त्रों की रचना करते हैं जिनमें धर्म सम्बन्धी सभी नियम एवं पालनाऐं वर्णित रहती है जो धर्म का एक लिखित प्रमाण है। ऋण के मार्जन हेतु ऋण-मुनियों द्वारा बताए गए धर्म मार्ग पर चलना एवं उनके द्वारा रचित शास्त्रों का पठन एवं पाठन करना साथ ही उन्हें वे सब मूलभूत आवश्यकताएं उपलब्ध कराना जिन्हें पाकर वे हमारे कल्याण हेतु कार्य करते हैं।
तृतीय ऋण पितृ ऋण है। माता-पिता जो हमें जन्म देते हैं एवं हमारे शरीर की रक्षादि व भरण-पोषण सम्बन्धी मुख्य कार्य करते हैं। इन्ही माता-पिता एवं पूर्वजों के द्वारा हमें पहचान मिलती है। वे हमें संस्कार देते है, उपदेश देते हैं। संसार में रहने के व्यवहार सिखाते हैं इसीलिए कहा गया है ‘‘पितृ देवो भवः’’, ‘‘मातृ देवो भवः’’। जिस प्रकार राजा अपनी प्रजा और भगवान अपने भक्तों का नित्य पालना करते है उसी प्रकार माता-पिता अपने पुत्र-सन्तान आदि का निःस्वार्थ भाव से भरण करते हैं।
पितृ ऋण का मार्जन कभी नहीं किया जा सकता परन्तु शास्त्रों के अनुसार कुछ कृत्य ऐसे हैं जिन्हें करने से इस ऋण की पुष्टि की जा सकती है। माता-पिता की जीवन पर्यन्त सेवा-सुश्रुषा, विवाह करके स्वयं के द्वारा माता-पिता का उत्तरदायित्व वहन करना एवं पूर्वजों की संतुष्टि हेतु पितृ-श्राद्ध एवं तर्पणादि कार्य द्वारा इस ऋण की निवृति की जाती है।
चतुर्थ ऋण भूत-ऋण है। स्थल चर - कुत्ते, सूअर, बिल्ली आदि। नभचर - कौवे, चील, कबूतर व जलचर - मछली, मगर आदि जीव हैं। ये जीव जिस क्षेत्र से सम्बन्धित हैं उस क्षेत्र को शुद्ध करते हैं। जैसे कुत्ते, सूअर, चींटी आदि स्थल पर हमारे द्वारा फैलाये गये करकट एवं विष्ठा को खाकर स्थल, चील व कौवे-कबूतर पंख फडफडाकर नभ व मछली आदि जीव जल की गन्दगी को खाकर अपने स्थान को शुद्ध रखती है। इस ऋण की निवृति इन जीवों को खाद्य पदार्थ डालने व इनकी रक्षादि कार्य करने से की जा सकती है।
अन्तिम व पंचम ऋण है नृ-ऋण। नृ से तात्पर्य नर अर्थात् हमारे पड़ोसी, स्वजन आदि। हमारे स्वजनोें में कुटुम्बी, बन्धु-बान्धव, रिश्ते-नातेदार, मित्रवर्ग आदि सम्मिलित किये जाते हैं। ये प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से हमारे सहायक होते हैं। इनसे परिवार बनता है और कुछ परिवार मिलकर ही समाज की स्थापना करते हैं। जिस समाज में हम रहते हैं व समाज हमें मान-सम्मान प्रदान करता है। कठिन परिस्थितियों में हमारी सहायता करता है। यह समाज का एवं समाज के लोगों का हम पर किया गया उपकार है। इस ऋण की निवृति के लिए हमें समाज में सद्-व्यवहार व कठिनाई के समय हर किसी की यथा सम्भव मदद करना, अतिथियों का सत्कार करना आदि क्रियाएं आती है। हमारी प्राचीन परम्परा में भी कहा गया है ‘‘अतिथि देवो भवः’’। चूंकि अतिथि को हम भगवान का रूप मानते हैं इसलिए इनके आदर-सत्कार करने में हम पीछे नहीं हटते। इस ऋण की निवृति के लिए अपनाये गये कार्यों से हम समाज में एक आदर्श व्यक्ति की भूमिका निभाते हैं।
पंच ऋणों का परिमार्जन करने से न केवल हमारा सामाजिक स्तर वरन् मानसिक व आध्यात्मिक स्तर भी विकसित होता है। ये ऋण किसी एक धर्म विशेष को लेकर नहीं बनाये गये अपितु सभी धर्मों एवं सभी वर्गों के लिए समान रूप से लागू होते हैं। इन्हीं ऋणों से बचने के लिए अपनाये जाने वाले कृत्यो को अपना कर हम एक आदर्श परिवार व एक आदर्श समाज की रचना कर सकते हैं।
तथाहि : श्रीमद्भागवत
Post a Comment