मन्त्र दीक्षा की आवश्यकता
उपनयन संस्कार
विहीन विप्र का जिस प्रकार देवादि कार्य का अधिकारी नहीं होता, उपनयन संस्कार के बाद ही अधिकारी होता है, उसी प्रकार अदीक्षित व्यक्ति का अधिकार देवादि के कार्य में नहीं होता है। अदीक्षित व्यक्तियों का
मन्त्र देवार्चन प्रभृति कार्य में अधिकार नहीं
होता। अतएव अपने को श्रीविष्णु मन्त्र
में दीक्षित करे। दीक्षा के बिना पूजादि कर्म में
अधिकार नहीं होता है। भगवदर्चना के बिना जो व्यक्ति भोजन, पान, करता है, वह चाण्डालादि की विष्ठा की कृमि होकर आकल्प काल तक रहता है। अतएव दीक्षा की नित्यता है।
श्रीगुरुदेव द्वारा मन्त्र दीक्षा |
स्कन्दपुराणीय कातिक माहात्म्य के श्रीब्रह्म-नारद संवाद में उक्त है- जिन्होंने दीक्षा ग्रहणपूर्वक श्रीहरि की अर्चना नहीं की, जगत् में वे सब ही पशु शब्द से अभिहित होते हैं। उन सब का जीवित रहने का फल ही क्या है।
श्री रूकमाँगद-मोहिनी संवाद में
लिखित है - अदीक्षित व्यक्ति के द्वारा अनुष्ठित समस्त कर्म निरर्थक होते हैं।
दीक्षा विरहित जन पशुयोनि को प्राप्त करते हैं।
विष्णुयामल में विशेष वर्णित है - जो गुरु, स्नेह अथवा लोभ से
अदीक्षित व्यक्ति को ग्रहण करता है, उन गुरु एवं शिष्य के
प्रति मस्त्राधिष्ठातृ देवता का एवं समस्त देवता का अभिशाप होता है।
विष्ण रहस्य में उक्त है – यथा किञ्चित भगवदर्चन से
महाफललाभ होता है, तब गुरु के निकट से दीक्षित होना ही होगा, इसमें आग्रह की आवश्यकता ही क्या है? परम्परा क्रम प्राप्त विधानावलि को श्रीगुरुमुख से न जानकर विधान एवं भक्ति से
देवार्चन करने पर शतांश का एकांश फल ही लाभ होता है। गुरु के अनादर से
अर्थात दीक्षा नहीं लेने से ही परम्परा मार्ग का अनादर होता है, जिससे पूजा का फल सम्यक नहीं होता है।
विष्णु यामल में वणित है - जिस अनुष्ठान के
द्वारा दिव्य ज्ञान की प्राप्ति एवं पाप क्षय होता
है। उसे तत्त्वज्ञ गुरुगण उक्त
गुरु पादाश्रय को ‘‘दीक्षा’’ कहते हैं। अतः श्रीगुरु को यथाविधि प्रणाम करके सर्वस्व निवेदन पूर्वक
यथाविधि दीक्षित
होकर मन्त्र ग्रहण करें।
स्कन्दपुराण के ब्रह्मा-नारद संवादस्थ कार्तिक माहात्म्य में वणित है, जो लोक सर्वदुःख विनाशिनी श्रीहरि दीक्षा प्राप्त किए हैं, वे सब ही व्यक्ति जग में तपस्वी, कर्मनिष्ठ एवं श्रेष्ठ हैं।
तत्त्वसागर सें उक्त है - जिस प्रकार रस विधान के द्वारा कांस्य की सुवर्णता प्राप्ति होती है, उस प्रकार दीक्षा विधान के द्वारा मानव मात्र का द्विजत्व उत्पन्न होता है॥
दीक्षा उपरांत
वैष्णववृन्दों के प्रति विशेषतः भक्तिवादी आचार्यगणों के प्रति भक्तिपूर्वक प्रणाम, यथाशक्ति उनकी पूजा, एवं आपत् गस्त होने पर उनकी रक्षा करें।
जहाँ जहाँ प्रमाद वशतः श्रीगुरुदेव की निन्दा श्रुत होती है, उक्त स्थानों में अवस्थान न करे। श्रीविष्णु स्मरण पूर्वक वहाँ से प्रस्थान करें। हे नारद ! जो लोक गुरुनिन्दा, भगवत् निन्दा एवं शास्त्रनिन्दा करते हैं, उसके साथ कभी भी अवस्थान कथोपकथन न करे।
श्रीविष्णु मन्दिर से निर्माल्यादि प्राप्त होने पर प्रणति पूर्वक निज मस्तक में उसका धारण करे, पश्चात् जल में उसका निक्षेप करे। मृत्तिका में पतित न हो।
विशेषत: प्रदक्षिणा, गमन, दान, प्रातःकाल एवं प्रवास के समय स्वीय मन्त्र का स्मरण बारम्बार करे। स्वप्न अथवा अक्षि सन्निकट में सहसा यदि किसी प्रकार अति हर्षद आश्चर्यकर घटना होती है, तो उसको श्रीगुरुदेव के समीप भिन्न अन्यत्र कदापि व्यक्त न करे।
तथाहि : ह भ वि
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